9 मई, 1540 जन्मोत्सव- वीरता के प्रतीक महाराणा प्रताप

प्रस्तुति- नवीन चन्द्र पोखरियाल रामनगर, सचित गौतम कोटला
मेवाड़ की शौर्य-भूमि धन्य है जहां वीरता और दृढ प्रण वाले प्रताप का जन्म हुआ। जिन्होंने इतिहास में अपना नाम अजर-अमर कर दिया। उन्होंने धर्म एवं स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया।
महाराणा प्रताप मेवाड़ के शक्तिशाली सिसोदिया हिंदू शासक थे। सोलहवीं शताब्दी के राजपूत शासकों में महाराणा प्रताप ऐसे शासक थे, जिन्होंने अकबर को छठी का दुध याद दिलवा दिया था। हालांकि महाराणा प्रताप जितने बहादुर थे, उतना ही निडर उनका चेतक घोड़ा था। यह अरबी मूल का घोड़ा महाराणा प्रताप का सबसे प्रिय था। हल्दी घाटी-(जून 1576) के प्रसिद्ध युद्ध में चेतक ने वीरता का जो परिचय दिया था, वो इतिहास में अमर है।
महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी संवत् कैलेंडर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है। राजस्थान के कुंभलगढ़ में महाराणा प्रताप का जन्म
महाराजा उदयसिंह एवं माता राणी जीवत कंवर के घर ई.स. 1540 में हुआ था। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुंदा में हुआ था।
श्री महाराणा प्रताप सिंह जी अस्त्र शस्त्र की शिक्षा “श्री जैमल मेड़तिया जी” ने दी थी जो 8000 राजपूत वीरों को लेकर 60000 से लड़े थे। उस युद्ध में 48000 मारे गए थे जिनमे 8000 राजपूत और 40000 मुग़ल थे। आज हल्दी घाटी के युद्ध के 300 साल बाद भी वहां की जमीनो में तलवारें पायी जाती हैं।
मेवाड़ के आदिवासी भील समाज ने हल्दी घाटी में अकबर की फौज को अपने तीरो से रौंद डाला था। वो महाराणा प्रताप को अपना बेटा मानते थे और राणा जी बिना भेद भाव के उन के साथ रहते थे आज भी मेवाड़ के राजचिन्ह पर एक तरफ राजपूत है तो दूसरी तरफ भील।
महाराणा प्रताप हमेशा दो तलवार रखते थे एक अपने लिए और दूसरी निहत्थे दुश्मन के लिए। अकबर ने एक बार कहा भी था कि अगर महाराणा प्रताप और जयमल मेड़तिया मेरे साथ होते तो हम विश्व विजेता बन जाते।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि महाराणा प्रताप का भाला 81 किलो वजन का था और उनके छाती का कवच 72 किलो का था। उनके भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन मिलाकर 208 किलो था। प्रताप का वजन 110 किलो और हाईट 7 फीट 5 इंच थी । महाराणा प्रताप की तलवार कवच आदि सामान उदयपुर राज घराने के संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
बहलोल खान का सामना प्रताप से हुआ तो प्रताप ने अपनी तलवार के एक ही झटके के प्रबल प्रहार से बहलोल खान को टोप, बख्तर, घोड़े की पाखट, घोड़े सहित काट दिया
” प्रताप के एक वार से बहलोल खां के सिर से घोड़े तक हो गए थे दो टुकड़े” बदायूनी लिखते हैं कि देह जला देने वाली धूप और लू सैनिकों के मगज पिघला देने वाली थी। चारण रामा सांदू ने आंखों देखा हाल लिखा है कि प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। वह झुककर बच गया, महावत मारा गया। बेकाबू हाथी को मानसिंह ने संभाल लिया। सबको भ्रम हुआ कि मानसिंह मर गया। दूसरे ही पल बहलोल खां पर प्रताप ने ऐसा वार किया कि सिर से घोड़े तक के दो टुकड़े कर दिए। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार हकीम खाँ सूरी थे।
हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के पास सिर्फ 20000 सैनिक थे जबकि अकबर के पास 85000 सैनिक थे। इसके बावजूद महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे, अबुल फजल ने कहा कि यहां जान सस्ती और इज्जत महंगी थी।

महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक के सिर पर हाथी का मुखौटा लगाया जाता था। ताकि दूसरी सेना के हाथी कंफ्यूज रहें।
राणा प्रताप का घोड़ा, चेतक हवा से बातें करता था। उसने हाथी के सिर पर पैर रख दिया था और घायल प्रताप को लेकर 26 फीट लंबे नाले के ऊपर से कूद गया था। अपना एक पैर कटे होने के बावजूद महाराणा को सुरक्षित स्थान पर लाने के लिए चेतक बिना रुके पांच किलोमीटर तक दौड़ा। यहां तक कि उसने रास्ते में पड़ने वाले 100 मीटर के बरसाती नाले को भी एक छलांग में पार कर लिया। जिसे मुगल की सेना पार ना कर सकी। श्री महाराणा प्रताप जी के घोड़े चेतक का मंदिर भी बना हुआ है जो आज भी हल्दी घाटी में सुरक्षित है ।
कहते हैं कि अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिए 6 शान्ति दूतों को भेजा था, जिससे युद्ध को शांतिपूर्ण तरीके से खत्म किया जा सके, लेकिन महाराणा प्रताप ने यह कहते हुए हर बार उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया कि राजपूत योद्धा यह कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता।
जब इब्राहिम लिंकन भारत दौरे पर आ रहे थे तब उन्होने अपनी माँ से पूछा था कि हिंदुस्तान से आपके लिए क्या लेकर आएं। तब माँ का जवाब मिला ” उस महान देश की वीर भूमि हल्दी घाटी से एक मुट्ठी धूल लेकर आना जहाँ का राजा अपनी प्रजा के प्रति इतना वफ़ादार था कि उसने आधे हिंदुस्तान के बदले अपनी मातृभूमि को चुना ” बदकिस्मती से उनका वो दौरा रद्द हो गया था। “बुक ऑफ़ प्रेसिडेंट यु एस ए ‘किताब में आप ये बात पढ़ सकते हैं।
मरने से पहले श्री महाराणा प्रताप जी ने अपना खोया हुआ 85 % मेवाड़ फिर से जीत लिया था। सोने चांदी और महलों को छोड़कर वे पूरे 20 साल मेवाड़ के जंगलो में घूमे।