चाफेकर बन्धु द्वारा देशद्रोही मुखबिरों का वध-“8 मई 1899 बलिदान दिवस- क्रांतिकारी वासुदेव हरि चाफेकर”

प्रस्तुति – नवीन चन्द्र पोखरियाल रामनगर, जिला नैनीताल उत्तराखंड
देश की स्वाधीनता के लिए जिसने भी त्याग और बलिदान दिया, वह धन्य है; परंतु जिस घर के सब सदस्य फांसी चढ़ गये, वह परिवार सदा के लिए पूज्य है। चाफेकर बन्धुओं का परिवार ऐसा ही था।
वासुदेव हरि चाफेकर और उनके भाइयों को आरम्भिक भारतीय क्रांतिकारियों में स्थान दिया जाता है।वासुदेव चाफेकर का जन्म 1880 में कोंकण में चित्पावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने मराठी भाषा के माध्यम से शिक्षा ले ली। समय के साथ, वह पुणे में चिंचवड में बस गए। बचपन में, तीनों भाइयों ने पिता की मदद करने के लिए हरि कीर्तन की मदद की। इसने चाफेकर भाइयों की शिक्षाओं में विभाजन किया।
वासुदेव चाफेकर ने अपने भाइयों, दामोदर चाफेकर और बालकृष्ण चाफेकर के साथ राजनीति और क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया। उन्होंने हथियारों के साथ भारतीय युवाओं को प्रशिक्षण दिया।
पुणे में राजनीतिक विकास से प्रेरित होकर, ये भाई क्रांतिकारी आंदोलन में बदल गए। अंग्रेजों के ब्रिटिश कानून की पुरानी सहमति के लिए अंग्रेजों का एक मजबूत विरोध था। तिलक ने अंग्रेजों के खिलाफ केसरी पर हमला किया, जिन्होंने भारतीय संस्कृति में हस्तक्षेप किया। तीनों भाई इस कॉल से प्रेरित थे। उन्होंने लोगों का आयोजन किया इसी समय, अंग्रेजों ने पुणे में प्लेग की जगह राक्षस पैटर्न पहन कर वाल्टर चार्ल्स रैंडला को भारत में आमंत्रित किया। रंदन ने उपचारात्मक उपायों के अनिवार्य कार्यान्वयन शुरू किया ऐसा करने में, उन्होंने सामाजिक अशांति को दूर करने की कोशिश की। इससे अंग्रेजों के खिलाफ चाफेकर भाई के नफरत का कारण हुआ। उन्होंने जवाबी कार्रवाई करने के लिए एक योजना तैयार की। भाइयों ने अपने खराब व्यवहार के लिए पुणे में रैंड को मारने की साजिश रची। उस समय, हीराम महोत्सव विक्टोरिया की रानी के शासनकाल के साथ मनाया गया था। सब कुछ प्रकाश हो गया था। एक भोज भी आयोजित किया गया था।
1897 में पुणे में भयंकर प्लेग फैल गया। इस बीमारी को नष्ट करने के बहाने से वहां का प्लेग कमिश्नर सर वाल्टर चार्ल्स रैण्ड मनमानी करने लगा। उसके अत्याचारों से पूरा नगर त्रस्त था। वह जूतों समेत रसोई और देवस्थान में घुस जाता था। उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए चाफेकर बन्धु दामोदर एवं बालकृष्ण ने 22 जून, 1897 को उसका वध कर दिया।
इस योजना में उनके दो मित्र गणेश शंकर और रामचंद्र द्रविड़ भी शामिल थे। ये दोनों सगे भाई थे; परंतु जब पुलिस ने रैण्ड के हत्यारों के लिए 20,000 रु. पुरस्कार की घोषणा की, तो इन दोनों ने मुखबिरी कर दामोदर हरि चाफेकर को पकड़वा दिया, जिसे 18 अप्रैल, 1898 को फांसी दे गयी। बालकृष्ण की तलाश में पुलिस निरपराध लोगों को परेशान करने लगी। यह देखकर उसने आत्मसमर्पण कर दिया।
इनका एक तीसरा भाई वासुदेव भी था। वह समझ गया कि अब बालकृष्ण को भी फांसी दी जाएगी। ऐसे में उसका मन भी केसरिया बाना पहनने को मचलने लगा। उसने मां से अपने बड़े भाइयों की तरह ही बलिपथ पर जाने की आज्ञा मांगी। वीर माता ने अश्रुपूरित नेत्रों से उसे छाती से लगाया और उसके सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया।
अब वासुदेव और उसके मित्र महादेव रानडे ने दोनों द्रविड़ बंधुओं को उनके पाप की सजा देने का निश्चय किया। द्रविड़ बन्धु पुरस्कार की राशि पाकर खाने-पीने में मस्त थे। आठ फरवरी, 1899 को वासुदेव तथा महादेव पंजाबी वेश पहन कर रात में उनके घर जा पहुंचे। वे दोनों अपने मित्रों के साथ ताश खेल रहे थे। नीचे से ही वासुदेव ने पंजाबी लहजे में उर्दू शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा कि तुम दोनों को बु्रइन साहब थाने में बुला रहे हैं।
थाने से प्रायः इन दोनों को बुलावा आता रहता था। अतः उन्हें कोई शक नहीं हुआ और वे खेल समाप्त कर थाने की ओर चल दिये। मार्ग में वासुदेव और महादेव उनकी प्रतीक्षा में थे। निकट आते ही उनकी पिस्तौलें गरज उठीं। गणेश की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गयी और रामचंद्र चिकित्सालय में जाकर मरा। इस प्रकार दोनों को देशद्रोह का समुचित पुरस्कार मिल गया।
पुलिस ने शीघ्रता से जाल बिछाकर दोनों को पकड़ लिया। वासुदेव को तो अपने भाइयों को पकड़वाने वाले गद्दारों से बदला लेना था। अतः उसके मन में कोई भय नहीं था। अब बालकृष्ण के साथ ही इन दोनों पर भी मुकदमा चलाया गया। न्यायालय ने वासुदेव, महादेव और बालकृष्ण की फांसी के लिए क्रमशः 8, 10 और 12 मई, 1899 की तिथियां निश्चित कर दीं।
8 मई को प्रातः जब वासुदेव फांसी के तख्ते की ओर जा रहा था, तो मार्ग में वह कोठरी भी पड़ती थी, जिसमें उसका बड़ा भाई बालकृष्ण बंद था। वासुदेव ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘भैया, अलविदा। मैं जा रहा हूं।’’ बालकृष्ण ने भी उतने ही उत्साह से उत्तर दिया, ‘‘हिम्मत से काम लेना। मैं बहुत शीघ्र ही आकर तुमसे मिलूंगा।’’
इस प्रकार तीनों चाफेकर बन्धु मातृभूमि की बलिवेदी पर चढ़ गये। इससे प्रेरित होकर 16 वर्षीय किशोर विनायक दामोदर सावरकर ने एक मार्मिक कविता लिखी और उसे बार-बार पढ़कर सारी रात रोते रहे।