भारतीय जनता पार्टी का पंजाब को लेकर बड़ा प्लान, सहारे की बजाए अपने पैरों पर खड़े होने की कवायद

चंडीगढ(विवेक गौतम कोटला)
राजनीति संभावनाओं का खेल है. कुछ भी हो सकता है. कभी भी हो सकता है, लेकिन के पंजाब प्रभारी विजय रुपाणी और शिरोमणि अकाली दल के मुखिया सुखबीर सिंह बादल के बयान के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि पंजाब में अकाली और बीजेपी की राह एक दूसरे से जुदा ही रहेगी.
बीजेपी अकेले बूते ही खुद को खड़ा करेगी. लोकसभा चुनाव भी अकेले ही लड़ने वाली है. नए प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ अपनी टीम के साथ इस काम में जुट भी गए हैं.
बीजेपी के पास पंजाब में खोने को कुछ खास नहीं है. सिर्फ पाना ही पाना है. उसके पास 13 में से सिर्फ दो लोकसभा और 117 में सिर्फ दो विधान सभा सदस्य हैं. मतलब यह हुआ कि मैदान साफ है. वह चारों ओर खेलने के लिए स्वतंत्र है. सुनील जाखड़ और उनकी टीम के सामने पहला टारगेट मिशन-2024 है. उसे एक साथ कई फ्रंट पर लड़ना है.
आम आदमी पार्टी से लेकर कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल, तीन प्रमुख दल हैं, जो चुनाव में सामने होंगे. आम आदमी पार्टी शामिल होती है तो भी बीजेपी को इन्हीं से लड़ना है. ऐसे में पंजाब में अब किसी भी दल के लिए लोकसभा चुनाव की जंग आसान नहीं रहने वाली.
13 लोकसभा सीटों के लिए तगड़ा संघर्ष
पंजाब के 13 लोकसभा सीटों के लिए तगड़ा संघर्ष होने वाला है. भाजपा पहली दफा अकेले दम पर चुनाव लड़ने को हुंकार भर रही है. उसके पीछे सिर्फ इतनी सी बात है कि साल 2019 का चुनाव अकाली दल के साथ मिलकर लड़ने के बाद भी सीटें दो ही मिली थीं. ऐसे में बीजेपी के सामने पंजाब में अब अकाली दल की बैसाखी के बजाय खुद को पैर पर खड़े होने का मौका दिख रहा है, क्योंकि 25 सालों से एनडीए में अकाली दल होने के चलते पार्टी चुनिंदा सीटों पर ही चुनाव लड़ती रही है.
सुनील जाखड़ बड़ा चेहरा
सुनील जाखड़ को पंजाब का प्रधान बनाने के पीछे मंशा भी यही है कि पार्टी खुला खेल सकेगी. किसी दबाव में नहीं आना है. जाखड़ एक ऐसा चेहरा है, जो हिंदुओं में भी अपनी साख रखते हैं तो सिख समुदाय भी उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखता है. जाखड़-कैप्टन की जो जोड़ी कांग्रेस में रहते हुए सरकार बनाने में कामयाब रही, अब वही जोड़ी फिर से भाजपा के साथ है. दोनों कांग्रेस की हर चाल को जानते-पहचानते हैं. दोनों ही नेताओं में कांग्रेस के प्रति बदले की भावना है. इसलिए पूरे जोश से लड़ने वाले हैं.
मनप्रीत बादल भी बीजेपी में
वहीं, शिरोमणि अकाली दल चीफ सुखबीर सिंह बादल के कजन मनप्रीत बादल भी बीजेपी में आ गए हैं. अगर समझौता होता तो शायद उनमें वह एनर्जी नहीं रहती क्योंकि वे भाई सुखबीर सिंह बादल के व्यवहार से ही आहत होकर पहले कांग्रेस और फिर भाजपा में शामिल हुए हैं. वे भी पूरी ऊर्जा के साथ मैदान में डटे हुए हैं और हर हाल में भाजपा की जमीन को ही मजबूती देने का काम कर रहे हैं.
भाजपा के सामने मेहनत करने को भरपूर समय
पंजाब का जो सीन बना हुआ है, उसमें भाजपा के सामने मेहनत करने को भरपूर समय है. किसी भी राज्य में विधान सभा चुनाव कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि राजनीतिक दल सरकार बनाने को संघर्ष करते हुए देखे जाते हैं. पंजाब में फिलहाल आम आदमी पार्टी की सरकार है, जो 2022 में बनी है. मतलब साफ है कि यहां साल 2027 में विधान सभा चुनाव होंगे. लोकसभा चुनाव में भाजपा मानकर चल रही है कि उसके पास जो दो सीटें हैं, कम से कम उतनी तो फिर से मिलेंगी ही, एक-दो सीटें ज्यादा भी हो सकती हैं. ऐसा होता है तो पंजाब बीजेपी नई ऊर्जा के साथ विधान सभा चुनाव के लिए कूद जाएगी. तब उसके पास चुनाव के लिए लगभग तीन वर्ष होंगे.
एनडीए के कुनबे को बढ़ाने की कोशिश
भाजपा एनडीए के कुनबे को लगातार बढ़ाने की कोशिश में है. अनेक छोटे दल एनडीए का हिस्सा हैं. शिरोमणि अकाली दल से उसे सख्त परहेज नहीं हो सकता. विजय रुपाणी-सुखबीर सिंह बादल कुछ भी कहें, लेकिन भाजपा यह भी जानती है कि प्रकाश सिंह बादल अब दुनिया में नहीं हैं. सुखबीर का वह प्रभाव नहीं है, जो उनके जमाने में था. अकाली दल कमजोर हो रहा है. इस दल के अनेक कार्यकर्ता बेहतर जगह तलाश रहे हैं. लंबे समय से अकाली दल-भाजपा गठबंधन की वजह से पंजाब भाजपा में लीडरशिप का विकास नहीं होने पाया, क्योंकि यहां अकाली अब तक बड़े भाई के रूप में रही. पर, अब वह बात नहीं है. भाजपा एकला चलो की राह पर है. भाजपा नेता अब खुद में भी संभावनाएं देख पा रहे हैं.
सुनील जाखड़ नेताओं को एकजुट करने में
सुनील जाखड़ नेताओं को एकजुट करने में सक्षम हैं तो उनकी मदद से कार्यकर्ताओं का आधार भी बढ़ाने में उनके सामने कोई बड़ी दिक्कत नहीं आने वाली. उनके सामने खुद को साबित करने की चुनौती भी है. जाखड़ इसे स्वीकार भी कर चुके हैं, क्योंकि कांग्रेस में वे सीएम बनते-बनते रह गए थे. उसकी कसक भी उनके मन में है.
पंजाब साधने के लिए मालवा क्षेत्र को साधना जरूरी
ऐसी मान्यता है कि पंजाब साधने के लिए मालवा क्षेत्र को साधना जरूरी है. आज का सच यह है कि जब प्रकाश सिंह बादल नहीं हैं तो स्वाभाविक तौर पर उनकी पार्टी कमजोर हुई है. वे मालवा के बड़े नेता थे. पर, जाखड़-कैप्टन भी मालवा से ही आते हैं. राणा गुरमीत सोढ़ी, केवल सिंह ढिल्लो, मनप्रीत सिंह बादल, अरविन्द खन्ना, गुरमीत सिंह कांगड़ जैसे कद्दावर नेता इसी इलाके से आते हैं. यह पंजाब का वह इलाका हैं, जहां से अधिकतर सीएम बने हैं. और यहां से अब तक भाजपा प्रत्याशी तक नहीं उतार पाती थी. अब मजबूत है. हालात उसके पक्ष में आए हैं.
भाजपा के सामने चुनौतियां भी और अवसर भी
पंजाब के वरिष्ठ पत्रकार आशोक सिंह भरत कहते हैं कि भाजपा के सामने चुनौतियां भी हैं और अवसर भी. अगर भाजपा की नई टीम लोकसभा की सभी 13 सीटों पर लड़ती है तो यह खुद में इतिहास होगा, क्योंकि अभी तक कभी ऐसा हुआ नहीं. अकेले लड़ने का एक फायदा और भी है. इस बहाने टीम का आंकलन और पार्टी की ताकत का भी पता आसानी से चल सकेगा. भाजपा के पास खोने को कुछ भी नहीं है. अकेले लड़ने की स्थिति में भी उसे सिर्फ पाना ही है, खोने को कुछ भी नहीं है.