जरा याद उन्हें भी कर लो, जो लौटकर घर ना आए-‘रात में आती है चीखने की आवाज, कुछ को अपना घर भी नहीं याद’

1971 युद्ध के बाद जो नहीं लौटे, Missing-54 के पाकिस्तानी जेलों में होने के कई सबूत
नई दिल्ली 17 दिसम्बर 2022 (नवीन चन्द्र पोखरियाल)
कल 16 दिसम्बर को सम्पूर्ण भारत ने विजय दिवस मनाया क्योंकि ठीक 51 साल पहले, 16 दिसंबर, 1971 को भारतीय सेना ने पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध जीता था। पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सेना के आगे अपनी हार स्वीकारते हुए बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया था। इसके बाद ही बांग्लादेश का जन्म हुआ था। इससे पहले इसे पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था। कोई भी भारतीय पाकिस्तानी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाजी (Lt-Gen AAK Niazi) के ढाका में आत्मसमर्पण पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए प्रसिद्ध तस्वीर को नहीं भूल सकता।
लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, वाइस एडमिरल एन कृष्णन, एयर मार्शल एचसी दीवान, लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह, मेजर जनरल जेएफआर जैकब और एफएलटी लेफ्टिनेंट कृष्णमूर्ति इस ऐतिहासिक क्षण के साक्षी बने थे। इन सभी ने भारत की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय भारतीय सेना ने पाकिस्तान के 93,007 लोगों को युद्धबंदी बनाया था, जिनमें से 72,795 पाकिस्तानी सैनिक थे। बाद में उन सभी को शिमला समझौते के अनुसार और युद्धबंदियों पर जिनेवा कन्वेंशन के प्रावधानों के तहत वापस पाकिस्तान भेज दिया गया था।
भारत ने एक महान देश के रूप में अपना कर्तव्य पूरा किया, जबकि पाकिस्तान ने इसके ठीक विपरीत किया। पिछले 51 वर्षों से, भारत अपने 54 सैनिकों, अधिकारियों और लड़ाकू पायलटों के ठिकाने की जानकारी मिलने का इंतजार कर रहा है। 54 भारतीय सैनिक पाकिस्तान की जेलों में कैद हैं। भारत सरकार ने उन्हें ‘मिसिंग इन एक्शन’ के रूप में चिह्नित किया है। अफसोस की बात है कि पाकिस्तानी सरकार ने देश में 54 युद्धबंदियों के होने से बार-बार इनकार किया है।
उल्लेखनीय है कि 1989 में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो के वकील को सूचित किया गया था कि जिस जेल में भुट्टो लाहौर में बंद थी, उसी जेल में युद्धबंदी हैं। इस घटना का उल्लेख एक किताब में मिलता है, लेकिन बाद में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने किसी भी युद्धबंदी के वहाँ होने की बात को सिरे से खारिज कर दिया था।
तब से मिसिंग 54 को भारत वापस लाने की कोशिश जारी है। मिसिंग 54 को लेकर कई प्रश्न उठे हैं। इनमें से एक यह है कि पाकिस्तान कैसे भारतीय युद्धबंदियों को कथिततौर पर अवैध हिरासत में रखने में कामयाब रहा। ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) हरवंत सिंह ने इंडिया टुडे को बताया कि 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान के अधिकारियों ने दोषपूर्ण विवरण के साथ दस्तावेजीकरण किया था, जब भारतीय सैनिकों को युद्धबंदी बनाया गया। उन्होंने कहा, “हमने इस मुद्दे को तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री के सामने उठाया था, जिन्होंने परवेज मुशर्रफ से बात की थी, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उचित दस्तावेजों का अभाव उन्हें हिरासत में लिए जाने के लिए जिम्मेदार था। अगर पाकिस्तान के अधिकारियों ने उनका दस्तावेजीकरण ठीक से किया होता, तो उनका पता लगाया जा सकता था और उनके परिवारों को दशकों तक दुखी नहीं होना पड़ता।”
मिसिंग 54 और उनके परिवारों के बारे में अनगिनत कहानियाँ बताई जानी चाहिए। बीबीसी के सौतिक बिस्वास द्वारा 2020 में लिखी गई एक रिपोर्ट के अनुसार, एक वरिष्ठ भारतीय पत्रकार चंदर सुता डोगरा ने मिसिंग 54 की कुछ कहानियों का पता लगाया। डोगरा ने उल्लेख किया कि 1990 के दशक में निचली अदालत में एक याचिका के जवाब में भारत सरकार ने जिक्र किया कि मिसिंग 54 सैनिकों में से 15 की मृत्यु की पुष्टि हुई थी। हालाँकि, आज सरकार का कहना है कि सभी 54 अभी भी लापता हैं।
पाकिस्तानी जेलों में भारतीय युद्धबंदियों की कई रिपोर्ट्स आई हैं। बीबीसी ने नोट किया 1965 के युद्ध में लापता हुए एक वायरलेस ऑपरेटर के परिवार को भारतीय सेना ने बताया था कि उसकी ड्यूटी के दौरान मृत्यु हो गई थी। हालाँकि, 1974 और 1980 के दशक की शुरुआत में, सरकार और परिवार को तीन भारतीय कैदियों द्वारा सूचित किया गया था कि वह अभी भी जीवित हैं। हालाँकि, भारतीय सैनिकों को जहाँ रखा गया है, उस जगह की जानकारी कभी नहीं मिली।
परिवारों ने 1983 में पाकिस्तानी जेलों का दौरा करने का मौका गँवाया
1983 में छह लोग और 2007 में 14 लोग मिसिंग 54 के बारे में पता लगाने के लिए पाकिस्तान गए थे। इन लोगों ने आरोप लगाया कि पाकिस्तानी सरकार ने उनका सहयोग नहीं किया और उन पर पत्थरबाजी की गई। जबकि परिवार वाले यह कहते रहे कि उनके पास पाकिस्तानी जेलों में बंद युद्धबंदियों के सबूत हैं। पाकिस्तान सरकार इससे बार-बार इनकार करती रही। 1982 में पाकिस्तानी तानाशाह जनरल जिया उल हक की भारत यात्रा के बाद लापता सैनिकों के परिवार वालों के बीच कुछ उम्मीद जगी थी और वे गलत नहीं थे। उस वक्त पाकिस्तान ने परिवारों को मिलने के लिए आमंत्रित किया था। तत्कालीन विदेश मंत्री नरसिम्हा राव ने सैनिकों के परिवार वालों को भरोसा दिलाया था कि वे इस यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए अपनी हरसंभव कोशिश करेंगे। विशेष रूप से 1972 में, भारत ने कुछ पाकिस्तानी परिवारों को जेलों में बंद कैदियों से मिलने की अनुमति दी थी, जिसे एक बड़ा कारण माना गया था कि पाकिस्तान भी भारतीय परिवारों को पाकिस्तानी जेलों में जाने की अनुमति देने के लिए सहमत हो सकता था।
इंडिया टाइम्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि मीडिया में सन्नाटा था। यह एक गोपनीय दौरा था और परिवारों से कहा गया था कि वे इस बारे में प्रेस से कुछ भी साझा न करें। ऐसी संभावना थी कि सरकारों के बीच कुछ डील हो रही थी। रिपोर्टों के अनुसार, परिवारों को कहा गया था, “पुरुषों को वापस लाओ। हो सकता है कि उनका स्वास्थ्य अच्छा न हों, लेकिन आप उनकी देखभाल करके उन्हें फिर से स्वस्थ कर सकते हैं।”
12 सितंबर, 1983 को परिवार वाले लाहौर के लिए रवाना हुए। बाद में उन्हें सूचित किया गया कि मुल्तान जेल जाने के लिए विदेश मंत्रालय के अधिकारी भी उनके साथ शामिल होंगे। ऐसा माना जाता है कि अधिकांश भारतीय कैदियों को यहाँ ही रखा जाता है। फिर वे 14 सितंबर को मुल्तान पहुँचे।
यह वह समय था, जब चीजें कहीं और मुड़ गई थीं। राजनीति परिवारों और जेलों में बंद भारतीय सैनिकों के बीच एक बाधा बन गई। रिपोर्टों के अनुसार, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी हक की काफी आलोचनात्मक थीं और नियमित रूप से अब्दुल गफ्फार खान और एमक्यूएम आंदोलन के पक्ष में बयान देती थीं। यह भी एक बड़ा कारण था कि भारतीय परिवारों को उस वक्त युद्धबंदियों से मिलने की अनुमति नहीं दी गई थी। एक और बात यह है कि भारत को 14 सितंबर को पटियाला जेल में बंद 25 पाकिस्तानी कैदियों से पाक अधिकारियों को मिलने की इजाजत देनी थी, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। पाकिस्तानी मीडिया ने बताया, “भारत अपने वादे से पीछे हट गया।”
मुल्तान पहुँचने के बावजूद परिजनों को युद्धबंदियों से मिलने नहीं दिया गया। परिवार के सदस्य अपने लोगों से मिलने के लिए लंबे समय तक बैठे रहे, लेकिन उन्हें जाने के लिए कह दिया गया। जेल अधिकारियों ने उन्हें बताया कि केवल जिया उल हक ही उनकी मदद कर सकते थे। जब पाकिस्तान सरकार ने विंग कमांडर अभिनंदन को रिहा किया गया, उस समय पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने एक बार फिर पाकिस्तानी जेलों में बंद 1971 के युद्धबंदियों को रिहा करने का मुद्दा उठाया था। उन्होंने कहा था, “भारत सरकार को इस्लामाबाद के साथ 1971 के युद्ध के पीओडब्ल्यू के मुद्दे को उठाना चाहिए।”